आँखों से देखी दुनिया, पर आँखों को देख न पाए हम।
आँखों को देख सकें ऐसी आँखें अब कैसे लाएँ हम।।ध्रु.।।
आँखों की खिड़की के पीछे बैठा जो सब कुछ देख रहा।
आँखों के आगे जो कुछ है, उन सब को जो है व्याप रहा।
उस द्रष्टा का दर्शन तुमको किस साधन से करवाएँ हम।।१।।
मुरदे की होती आँख मगर वह देख न सकता है कुछ भी।
रोते कितना हैं कौन वहाँ वह जाँच न सकता है कुछ भी।
जड तन को जो चेतन करता उसको कैसे बतलाएँ हम।।२।।
जो नहीं दिखाई देता है उसका होना कैसे मानें?
हम जान नहीं सकते जिसको वह है यह हम कैसे जानें?
यदि तर्क करोगे ऐसा तुम, तुमको कैसे समझाएँ हम।।३।।
तुम तर्क-कुतर्क लड़ा अपने हम से जी भर के लड़ सकते।
पर अपने ही कंधे पर तुम क्या कोशिश कर के चढ़ सकते?
अब तुमको ही तुमसे कैसे किस समय कहाँ मिलवाएँ हम।।४।।
हर वस्तु जगत् की तुम अपने दुस्तर्कों से झुठला सकते।
लेकिन झुठलानेवाले को तुम किस विधि से झुठला सकते।
वह मैं हूँ, मैं हूँ, मैं ही हूँ यह ‘ज्ञान’ सदा अपनाएँ हम।।५।।
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