नहीं दिखाई देता मुझको जगत कहीं भी भाई।
मुझे तो ब्रह्म देत दिखलाई।।ध्रु.।।
निराकार निर्गुण की छवि ही सगुण रूप धर आई।
उसीने बहु बन सृष्टि रचाई।।
अपनी माया की मस्ती से मति उसकी बौराई।
रज्जु ही सर्प देत दिखलाई।।
माया तो प्रभु की काया की है केवल परछाई।
वेद सब देते यही दुहाई।।
खेल खेल में रूप जगत का धर कर धूम मचाई।
मुझे तो ब्रह्म देत दिखलाई।।१।।
जागृति में दु:ख हुआ बहुत पर निद्रा सुख की आई।
अवस्था-अनुभव सब अस्थायी।।
भेद अवस्था में है लेकिन भोक्ता चिर औ’ स्थायी।
उसीकी सत्ता सब में छाई।।
जागृति स्वप्न सुषुप्ति भोग का भोक्ता ‘मैं’ ही भाई।
न देता अन्य कहीं दिखलाई।।
ज्ञानरूप माणिकमय है सब जो जो देत दिखाई।
मुझे तो ब्रह्म देत दिखलाई।।२।।
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