जगत् यह माणिकमय है भाई।
जो जो देत दिखाई, वह सब माणिकमय है भाई।।ध्रु.।।
जो जो कुछ ‘है’ ‘है’ कहलाता।
नामरूप अपना दिखलाता।
वह सब प्रभुमय है जिसमें भी सत्ता देत दिखाई।।१।।
वस्तु जहाँ जो भासित होती।
चिन्मयता उद्घाटित होती।
भान उसीका होता रहता यह चेतन चतुराई।।२।।
जिसमें जितनी भी प्रियता है।
जिस जिस से जो सुख मिलता है।
वह चित्सुख माणिक है, उसकी महिमा बरनि न जाई।।३।।
‘ज्ञान’ कहाँ हो तुम? माणिक है।
अंदर औ’ बाहर माणिक है।
माणिक ही मुख, माणिक दर्पण माणिक ही परछाई।।४।।
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