माणिक माणिक जपनेवाला माणिक ही बन जाता है।
ध्यान ध्येय का धरकर ध्याता ध्येय स्वयं बन जाता है।।
माणिक माणिक जपने से मैं इसीलिए कतराता हूँ।
बना अगर मैं भी माणिक तो क्या होगा – घबराता हूँ।।१।।
दो हो तो हो प्रेम, एक में प्रेम कहाँ हो पाएगा।
कौन जलाए दीप भक्ति के कौन आरती गाएगा।।
द्वैत सदा अद्वैतबोध से सरल सुकर श्रेयस्कर है।
पूजन अर्चन वंदन का सुख बिना द्वैत के दुष्कर है।।२।।
तर्क सुने मेंरे प्रभु ने औ’ हंसकर धीरे से बोले।
प्रेम तुम्हारी नहीं समझ में आएगा तुम हो भोले।।
द्वैत सरल, अद्वैत कठिन है, यह तुमने कैसे जाना?
सत्य सदा अद्वैत सिद्ध है यह तुमको है समझाना।।३।।
तुम्हीं कहो, क्या भाव प्रेम का एकांगी हो सकता है?
अगन लगे यदि एक हृदय में हृदय दूसरा जलता है।।
जो मेंरी स्मृति में जीते, मैं स्मरण सदा उनका करता।
जो आते हैं शरण मुझे मैं वरण सदा उनका करता।।४।।
माणिक माणिक तुम जपते, मैं गीत ज्ञान के गाता हूँ।
माणिक तुम बन जाते औ’ मैं ज्ञानरूप हो जाता हूँ।।
भगवत्ता अपनी तजकर मैं रूप भक्त का धरता हूँ।
बनकर देखूँ भक्त स्वयं मैं यही कामना करता हूँ।।४।।
युगल ज्ञान औ’ माणिक का यह अदल बदल हो जाता है।
क्या केवल अदला बदली से प्रेम कहीं खो जाता है।।
प्रेमयुगल अपना देखो यह शाश्वत और चिरंतन है।
गंगा के जल से यमुना का मंगलमय आलिंगन है।।५।।
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