छीनी मेंरी देहवासना।
औ’ छीनी है अहंभावना।
बिना देह औ’ बिना अहं के
कठिन हो गया जीना।।१।।
दृष्टि सृष्टिदर्शन की छीनी।
वृत्ति बुद्धि औ’ मन की छीनी।
सुख दु:ख के धक्के खाकर भी
नहीं धड़कता सीना।।२।।
व्यर्थ हुआ सब करना धरना।
व्यर्थ हो गया जीना मरना।
व्यर्थ हुआ श्रम, व्यर्थ बहाया
मैंने खून पसीना।।३।।
‘ज्ञान’ नहीं अब कुछ करने को।
इतना ही है अब करने को।
माणिक माणिक के प्यालों
को चुस्की ले ले पीना।।४।।
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