प्रभु तुम्हारे पदकमल पर मन सदा एकाग्र हो।
कार्य यह अविलंब हो, प्रभु शीघ्र हो अतिशीघ्र हो।।ध्रु.।।
वानरों सा कूदता मन वृक्ष से दीवाल पर।
इस विषय से उस विषय, इस डाल से उस डाल पर।
कुछ करो उद्विग्नता मनरूप मर्कट की मिटे।
ताकि वह आए तुम्हारी शरण में अति नम्र हो।।१।।
प्रार्थना मेंरी सुनी, स्मितहास्य कर के यूं कहा।
धैर्य रख रे मूढ़ क्यों उद्विग्न है तू हो रहा।
स्थिर न होगा मन कभी चांचल्य उसका धर्म है।
छोड़ पाएगा न वह निजधर्म तू मत व्यग्र हो।।२।।
मन कहाँ पर मन रहा यदि मनन करना छोड़ दे।
कामनाएँ, भावनाएँ, कल्पनाएँ तोड़ दे।
इसलिए आता शरण जो मन नहीं कुछ और है।
‘नमन’ कहते हैं उसे यह बोध तेरा तीव्र हो।।३।।
‘ज्ञान!’ मन को बाँधने की व्यर्थ चिंता छोड़ दे।
योजना उसको शरण में भेजने की छोड़ दे।
भेज मत मन, तू स्वयं आ, छोड़कर उसको वहीं।
ज्ञान! तुझको बोध यह अविलंब हो औ’ शीघ्र हो।।४।।
0 Comments